वेद और अद्वैतवाद


स्वामी दयानंद की वेद भाष्य को देन-भाग १४

 

वेद और अद्वैतवाद

 

डॉ विवेक आर्य

 

स्वामी दयानंद जी महाराज ने सत्यार्थ प्रकाश के ११ वें समुल्लास में अद्वैतवाद विचारधारा पर अपना दृष्टीकोण स्पष्ट किया हैं. अद्वैतवाद विचारधारा की नीव गौड़पादाचार्य ने २१५ कारीकायों (श्लोकों) से की थी ,इनके शिष्य गोविन्दाचार्य हुए और उनके शिष्य दक्षिण भारत में जन्मे स्वामी शंकराचार्य हुए जिन्होंने इन कारीकायों का भाष्य रचा था. यही विचार अद्वैतवाद के नाम से प्रसिद्द हुआ था. स्वामी शंकराचार्य अत्यंत प्रखर बुद्धि के अद्वितीय विद्वान थे जिन्होंने भारत देश में फैल रहे नास्तिक बुद्ध और जैन मत को शास्त्रार्थ में परास्त कर वैदिक धर्म की रक्षा करी. उनके प्रचार से भारत में नास्तिक मत तो समाप्त हो गया पर मायावाद अर्थात अद्वैतवाद की स्थापना हो गयी.

 

अद्वैतमत क्या हैं?

 

स्वामी शंकराचार्य ब्रह्मा के दो रूप मानते हैं, एक अविद्या उपाधि सहित हैं, जो जीव कहलाता हैं और दूसरा सब प्रकार की उपाधियों से रहित शुद्ध ब्रह्मा हैं. अविद्या की अवस्था में ही उपास्य उपासक आदि सब व्यवहार हैं और जब जीव अविद्या से रहित होकर अहम् ब्रह्मास्मि अर्थात में ब्रह्मा हूँ, इस अवस्था को पहुँच जाता हैं तो जीव का जीवपन नष्ट हो जाता हैं.

 

माया का स्वरुप

 

अद्वैतमत के अनुसार माया के सम्बन्ध से ही ब्रह्मा जीव कहता हैं. यह मायारूप उपाधि अनादिकाल से ही ब्रह्मा को लगी हुई हैं और इस अविद्या के कारण ही जीव, अपने आपको ब्रह्मा से भिन्न समझता हैं. स्वामी शंकराचार्य के अनुसार माया को परमेश्वर की शक्ति, त्रिगुणात्मिका, अनादिरूपा, अविद्या का नाम दिया हैं.इसे अनिर्वचनीय (जो कहीं न जा सके) माना हैं.

 

जगत मिथ्या

 

अद्वैतमत के अनुसार जगत मिथ्या हैं. जिस प्रकार स्वपन जूठे होते हैं तथा अँधेरे में रस्सी को देखकर सांप का भ्रम होता हैं, उसी प्रकार इस भ्रान्ति, अविद्या, अज्ञान के कारण ही जीव, इस मिथ्या संसार को सत्य मान रहा हैं. वास्तव में न कोई संसार की उत्पत्ति , न प्रलय, न कोई साधक, न कोई मुमुक्षु (मुक्ति) चाहने वाला हैं, केवल ब्रह्मा ही सत्य हैं और कुछ नहीं.

 

अकर्ता तथा अभोक्ता

 

अद्वैतमत के अनुसार यह अंतरात्मा न कर्ता हैं, न भोक्ता हैं, न देखता हैं, न दिखाता हैं. यह निष्क्रिय हैं. सूर्य के प्रतिबिम्ब की भांति, जीवों की क्रियाएं, बुद्धि पर चिदाभास (चैतन्य प्रतिबिम्ब छाया – Reflection) से हो रही हैं.

 

द्वैतवाद के समर्थक वेद और उपनिषद्

 

शंकर स्वामी अपने शारीरिक भाष्य १/१/३ में ऋग्वेद आदि को अपौरुष्य और सूर्य की भांति स्वत: प्रमाण मन हैं. वेद संहिता को प्रमाण मानने के बावजूद शंकर स्वामी ने वेदों में से एक भी प्रमाण अद्वैतवाद की पुष्टि के लिए प्रस्तुत नहीं किया. जबकि वेदों में अनेक प्रमाण जीवात्मा और परमात्मा की दो भिन्न चेतन सताएँ घोषित करते हैं.जैसे

 

ऋग्वेद १/१६४/२० में आया हैं

 

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते I

तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्यनश्ननन्यो अभिचाकशीति II

 

इस मन्त्र का संदेश हैं की दो चेतन ईश्वर और आत्मा अनादी प्रकृति रुपी वृक्ष के साथ सम्बंधित हैं. इसमें एक आत्मा अपने अपने कर्मों का फल भोग करती हैं जबकि दूसरी परमात्मा किसी भी प्रकार के फलों का भोग न करता हुआ उसको देखता हैं.

 

इसी मन्त्र का श्वेताश्वतर उपनिषद् ४/६ में स्वामी शंकर अर्थ करते हैं परमेश्वर नित्य शुद्ध बुद्ध स्वाभाव वाला सबको देखता हैं. यदि अद्वैतवाद की माने तो ईश्वर से भिन्न कोई और पथार्थ नहीं हैं तो फिर ईश्वर किसे देख रहे हैं.

 

ऋग्वेद १०/८२/७ और यजुर्वेद १७/३१ में भी आया हैं की हे जीवों तुम उस ब्रह्मा को नहीं जानते जिसने सारी प्रजा को उत्पन्न किया हैं. वह तुमसे भिन्न हैं और तुम्हारे अंदर भी हैं.

बृहद-अरण्यक उपनिषद् के अंतर्यामी प्रकरण में लिखा हैं जिस प्रकार परमात्मा सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि पदार्थों के भीतर व्यापक हैं और उनको नियम में रखता हैं, उसी प्रकार जीवात्मा के भीतर भी व्यापक हैं और इस जीवात्मा से पृथक भी हैं.

श्वेताश्वतर उपनिषद् ४/५ में प्रकृति के लिए अजा और परमात्मा और जीव के लिए दो बार अज: पद आया हैं. इसमें परमेश्वर, आत्मा और प्रकृति तीनों को अनादी बताया गया हैं.

कठो-उपनिषद १/३/१ में आया हैं की इस शरीर में छाया अर्थात अज्ञान से युक्त शरीर और आतप अर्थात प्रकाशमय परमात्मा हैं. इस मंत्र में दो भिन्न चेतन सत्ता का स्पष्ट प्रमाण हैं.

 

अद्वैतवाद समालोचना

 

जगत मिथ्या

 

शंकर स्वामी के दादा गुरु गौडपादाचर्या ने २/३२ (गौ .का.) में ब्रह्मा सत्य हैं और जगत मिथ्या हैं, यह सिद्धांत वेदादि शास्त्रों, प्रत्यक्ष प्रमाण और युक्तियों के विरुद्ध स्थापित किया हैं.

यजुर्वेद ४०/८ में लिखा हैं की इस जगत में परमात्मा ने यथार्थ पथार्थों का निर्माण किया. जो यथार्थ पथार्थ हैं वह मिथ्या कभी हो नहीं सकता इसलिए जगत मिथ्या कैसे हुआ.

ऋग्वेद १०/१८०/३ में लिखा हैं की परमात्मा प्रलय के पश्चात पूर्ववत सृष्टि की रचना करते हैं . क्या परमात्मा मिथ्या प्रकृति की रचना करते हैं और क्या यह नियम अनादी कल से चलता आ रहा हैं?

यजुर्वेद ४०/९ में प्रकृति को असम्भूति अर्थात नित्य लिखा हैं फिर नित्य प्रकृति मिथ्या कैसे हो गयी?

ऋग्वेद १/४/१४ में लिखा हैं की परमात्मा ने अपने से भिन्न सब संसार को रचा.

छान्दोग्य उपनिषद् ६/४/४ में लिखा हैं की इस सारी सृष्टी का मूल सत्य हैं और सत्य पर ही सब आश्रित हैं.

वैशेषिक दर्शन ने ६ पदार्थों के और न्याय दर्शन ने १६ पदार्थों के तत्व ज्ञान से मुक्ति लिखी हैं. यदि यह जगत मिथ्या हैं तो इन पदार्थों के तत्व ज्ञान से मुक्ति मिलना निरर्थक सिद्ध होता हैं.

वेद और दर्शन ,उपनिषद् के प्रमाणों से स्पष्ट प्रमाणित होता हैं की जगत कार्य क्षेत्र हैं और इसी में जीव अपने कर्म फल प्राप्ति के लिए ही देह धारण करके भिन्न योनियों में इस विश्व में आकर फल का उपभोग करता हैं. जब जगत ही मिथ्या हैं तो जीना किसका और फल पाना किसका.इसलिए धर्म शास्त्रों के प्रमाण से यह सिद्ध होता हैं की जगत मिथ्या नहीं अपितु यथार्थ हैं.

 

माया की समीक्षा

 

अद्वैत मत के अनुसार जीव और ब्रह्मा की भिन्नता का कारण माया हैं जिसे अविद्या भी कहते हैं. जिस समय जीव से अविद्या दूर हो जाती हैं उस समय वह ब्रह्मा हो जाता हैं. हमारा प्रथम आक्षेप हैं की यदि अविद्या ब्रह्मा का स्वाभाविक गुण (Natural) हैं तब तो अविद्या का नाश नहीं हो सकता क्यूंकि स्वाभाविक गुण सदा ही अपने आश्रित द्रव्य के आधार पर स्थिर रहता हैं. यदि यह अविद्या नेमैतिक (Acquired) हैं तो किस निमित से ब्रह्मा का अविद्या से संपर्क हुआ. यदि कोई और निमित मन जाये तो ब्रह्मा के साथ उस निमित को भी नित्य मन्ना पड़ेगा और उसे नित्य मानने पर द्वैत सिद्ध होता हैं फिट अद्वैतवाद नहीं रहता. दुसरे इस अविद्या का नाश वेदादि शास्त्रों के ज्ञान द्वारा होता हैं तो फिर वह निरुपाधि ब्रह्मा वेद ज्ञान को कैसे उत्पन्न करता हैं?

 

अद्वैत मत के अनुसार जीव की ब्रह्मा से कोई भिन्न सत्ता नहीं हैं. ब्रह्मा का जो आभास हैं जिसे चिदाभास कहते हैं अर्थात अंत: करण पर चैतन्य ब्रह्मा के प्रतिबिम्ब के कारण जीव अपने आप को ब्रह्मा होता हुआ भी जीव समझ रहा हैं. जिस प्रकार जल कुण्डों में सूर्य का प्रतिबिम्ब दिखाई देता हैं और जल के हिलने से सूर्य दिखाई देता हैं इसी प्रकार शरीर में अंत: करण के ऊपर ब्रह्मा का आभास (चिदाभास) पड़ता हैं, उसी के कारण ही जीव सब खेल करता हैं. इसकी समीक्षा यह हैं की निराकार और सर्व व्यापक का प्रतिबिम्ब नहीं होता. प्रतिबिम्ब साकार और दूर की वास्तु का होता हैं. इसलिए सूर्य का दृष्टान्त यहाँ ठीक नहीं बैठता. सूर्य साकार हैं और जल के कुण्डों से दूर हैं. इसलिए भीतर और बाहर व्यापक निराकार ब्रह्मा में यह दृष्टान्त नहीं घट सकता.

 

अद्वैत मत के अनुसार भ्रान्ति होने के कारण हम ब्रह्मा होते हुए भी अपने आपको जीव मान रहे हैं और यह भ्रम बुद्धि को होता हैं आत्मा को नहीं. इसकी समीक्षा यह हैं की बुद्धि जड़ वास्तु हैं और सुख दुःख आदि का अनुभव चेतन यानि आत्मा को होता हैं जड़ को नहीं . जिस प्रकार नेत्र के देखने से कोई नहीं कहता की नेत्र देखते हैं सब यही अनुभव देखने वाला तो भीतर चेतन आत्मा हैं. नेत्र आदि तो उसके साधन भर हैं. ऋग्वेद १/१६४/२० तथा मुण्डक उपनिषद् ३/१/१ में लिखा हैं की यह जीव ही सुख दुःख का भोक्ता हैं. कठ उपनिषद् १/१/३ में लिखा हैं की शरीर, इन्द्रिय और मन के साथ युक्त होकर यह आत्मा सुख दुःख का उपभोग करता हैं. प्रश्न उपनिषद् ४/९ में लिखा हैं की यह आत्मा ही देखता, सुनता, सूंघता और मनन करता हैं. इन प्रमाणों से स्पष्ट सिद्ध होता हैं की मायावादियों का यह विचार की सांसारिक खेल बुद्धि करती हैं आत्मा नहीं सर्वथा निर्मूल हैं.

 

अद्वैत मत के कारण हानियाँ

 

प्राचीन वैदिक इतिहास को पढने से पता चलता हैं की आर्य लोग चरित्र में ऊँचे, ज्ञान में निपुण, युद्ध विद्या में कुशल होते थे. उनमे बुद्धि,वीरता और निर्भयता कूट कूट कर भरी होती थी. दुष्टों के नाश और सज्जनों की रक्षा के लिए वे सदा तत्पर रहते थे. ऋग्वेद १०/२८/४ में लिखा हैं की वीर पुरुष नदियों के बहाव को उल्टा देते हैं और घास खाने वाले जीवों से सिंह को भी मार डालते हैं.वैदिक कल में आर्य शास्त्र और शास्त्र दोनों में निपुण होते थे और परमेश्वर के अलावा किसी से भय नहीं खाते थे. इस प्रकार की शक्ति रखने वाले आर्यों का स्वार्थी, दब्बू, भयभीत और निरुत्साही जाति में परिवर्तन कैसे हो गया. इसका कारण भारत में फैले तीन अवैदिक मत हैं जैन, बुद्ध और वेदांत. जैन और बुद्ध मत के प्रभाव से छदम अहिंसा का प्रपंच आर्य हिन्दू जाति में घुस गया जिससे वे शक्ति हिन् होकर कमजोर हो गए और वेदांत के प्रभाव के कारण आर्य जाति में संसार से उदासीनता, जूठा वैराग्य और अकर्मयता आदि ने जन्म ले लिया .हम उदहारण देकर अपने कथन को सिद्ध करते हैं.

 

सिंध का राजा दाहिर वीर राजा था पर उसके राज्य में बुद्धों का वर्चस्व था. जब मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर हमला किया तो बुद्धों ने सोचा की युद्ध करना अहिंसा नहीं हिंसा हैं इसलिए राजा का साथ नहीं दिया. जिससे राजा दाहिर हार गया. अपने देश की दुश्मनों से रक्षा करने के क्षात्र धर्म का पालन करना हिंसा नहीं कहलाती. (ref. History of India by C.B.Vaidya)

 

नालंदा विश्वविद्यालय शिक्षा के लिए विश्व प्रसिद्द था. यहाँ बुद्ध मत का प्रचार था. ११९७ में खिलजी ने केवल २०० सैनिकों के साथ यहाँ हमला किया, हजारों की संख्या में सिर मुंढे हुए अहिंसा परमों धर्म के मंत्र का जाप करते हुए गाजर मूली की तरह कट गए पर किसी भी बुद्ध भिक्षु ने उनका विरोध नहीं किया. इसके बाद खिलजी ने विश्व विद्यालय के पुस्तकालय को आग लगा कर लाखों पुस्तकों के भंडार का नाश कर दिया. (रेफ.History of India by Elliot)

 

इसी प्रकार गुजरात में सोमनाथ मंदिर पर जब मुहम्मद गजनी ने हमला किया तो हजारों की संख्या में उपस्थित पुजारियों और राजपूत सैनिकों ने जूठी अहिंसा,जूठी दया, जूठी शांति और मिथ्या वैराग्य का लबादा पहन लिया जिससे न केवल मंदिर का नाश हुआ बल्कि इतिहास में हमेशा हमेशा के लिए हिंदुयों पर कायर का धब्बा लग गया.

वेद में वीरों को क्षात्र धर्म का पालन करते हुए आज्ञा हैं हे मनुष्यों आगे बढों , विजयी बनों, ईश्वर तुम्हारी भलाई करेगा. तुम्हारी भुजाएं लम्बी हो, जिन्हें कोई रोक न सके- ऋग्वेद १०/१०३/१३

अथर्वेद ६/६/२ में लिखा हैं की जो दुष्ट हमें सताता हैं तुम वज्र यानि शस्त्रों से उसके मुख को तोड़ दो.

यजुर्वेद में लिखा हैं की राक्षस और लूटेरों को जला दो- यजुर्वेद १/७

इन प्रमाणों से यह सिद्ध होता हैं की जब तक हिन्दू जाति वेदों की आज्ञा का पालन करती रही वीर योध्या की भांति विश्व पर राज्य करती रही जब उसने वेदों का मार्ग छोड़कर अद्वैत मत के जगत को मिथ्या समझ कर अकर्मयता का विचार अपनाया अथवा जैन और बुद्ध धर्म के छदम अहिंसा को माना तब तब दुश्मनों से मार खायी.

 

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Posted on October 19, 2011, in Philosophy, Swami Dayanand. Bookmark the permalink. 8 Comments.

  1. nice

  2. Namaste !

    is lekh mein advait ko sahi ropp mein nahi darshaya gaya..Saath hi sindh mein baudh mat aur jati pratha ki haar ko advait par thopa jaana bhi samajh mein nahi aata.

    sindh mein brahman (karm kaand , yagya aadi karne waale) brahmanabad mein rehte the, baudh mat ke bhi kai log the. Jaat the jinhe tucch nazron se dekha jaata tha aur Dahir raja tha jo apne raj ke mad mein apni hi behan se vivah kar baitha jyotish ke andhanukaran ke kaaran

    kya ye sab advait ke kaaran hua ?

    doosra thathya ye hai ki yajur ved adhyay 40 (arthat ishopnishad ) 6,7 ko padhiye …wo gyan kand hai ..usme atma ka ekatva saaf zahir hota hai

    jin do pakshiyon ki baat aap kar rahe hain ..kya wo do bhinn pakshi hain ?

    advaitin Gita ko shirodharya karte hain , jisse saaf hota hai ki nishkarmana hona dhyey ho hi nahi sakta ..kyon nishkraman hona bhi ek Karma hi hai..nishkaam karma ko samajhna aroori hai

  3. यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
    सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते॥

    यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः।
    तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः॥

    aatma !

  4. hame vedh ko badaawa dena chahiye aur vedh ka hindhi mai anwaadh karke ek ek baag prakashit karna chahiye taaki mere jese log usse samjh sake

  5. अहिंसा का तात्पर्य है, आत्मा में आत्मा की वजह से अवधि वाले नश्वर जड़ मिट्टी रुप शरीर में अन्न सांस से बनते प्राण-सत्वगुण बुद्धि को दाता राम को पकड़ने पर, परमात्मा तक पहुंच के लिए सही धर्म है। धर्म अर्थात ध्यान राम अर्थात प्राणों पर ध्यान केंद्रित कर आत्म ज्ञान तक पहुंच का उपाय है।
    भगवान महावीर का यह संदेश अपने अनुयायियों के लिए था।

  6. अहिंसा का तात्पर्य है, आत्मा में आत्मा की वजह से अवधि वाले नश्वर जड़ मिट्टी रुप शरीर में अन्न सांस से बनते प्राण-सत्वगुण बुद्धि को दाता राम को पकड़ने पर, परमात्मा तक पहुंच के लिए सही धर्म है। धर्म अर्थात ध्यान राम अर्थात प्राणों पर ध्यान केंद्रित कर आत्म ज्ञान तक पहुंचने का उपाय है।
    भगवान महावीर का यह संदेश अपने अनुयायियों के लिए था।

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