सदाचार बनाम समलेंगिकता


डॉ विवेक आर्य

Times of India दैनिक अख़बार की गिनती हमारे देश के नामी गिरामी अंग्रेजी अख़बारों में होती हैं. स्वाभाविक हैं अंग्रेजी में होने के कारण उसका मूल पाठक वर्ग भारत के वो लोग हैं जिनके सामने रोज यह समस्या नहीं होती की रात का भोजन नसीब होगा अथवा नहीं, सर्दी की रात में छत नसीब होगी अथवा नहीं, अगले दिन मजदूरी मिलेगी अथवा नहीं मिलेगी.इस कारण से उसमें छपने वाले लेखों के विषय आम आदमी से सम्बंधित न होकर देश की तथाकथित Elite क्लास ज्यादा होती हैं. पिछले हफ्ते एक खबर को दो बार इस अख़बार ने बड़ी सुर्ख़ियों से छापा. ललित कला अकादमी दिल्ली में बलबीर किशन नामक पेंटर ने समलेंगिकता के समर्थन में अपनी प्रदर्शनी लगाई जिसमे उसने अपनी ऐसी पेंटिंग्स प्रदर्शित करी जिनका सन्देश समाज में समलेंगिकता को बढ़ावा देना था. सब ठीक चल रहा था अचानक एक बलिष्ठ व्यक्ति ने एक दिन शाम के समय बलबीर किशन पर हमला किया और उसे गिरा दिया तथा भारतीय संस्कृति को विकृत करने के आरोप लगा कर वह वहां से चला गया. इस हादसे को अख़बार ने विचारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला से लेकर अत्यंत शर्मनाक हरकत से लेकर सस्ती लोकप्रियता पाने का आसान तरीका से लेकर वात्सायन का कामसूत्र एवं खजुराओ आदि में नग्न प्रतिमाओं का भारतीय संस्कृति में विशिष्ट स्थान होना से लेकर पहले भी अमृता प्रीतम आदि चित्रकारों द्वारा नग्न चित्रों के माध्यम से कला को बढ़ावा दिया गया था से लेकर मकबूल फ़िदा हुसैन के विरुद्ध हुए आंदोलनों की पुनरावृति से लेकर हिन्दू संकीर्ण मानसिकता के उदहारण के रूप में पेश किया गया.

मेरे इस लेख का मुख्य उद्देश्य यह सिद्ध करना हैं की भारतीय संस्कृति खजुराओ की नग्न मूर्तियाँ अथवा वात्सायन का कामसूत्र नहीं हैं जैसा की पहले विदेशी लोगों ने अपनी पुस्तकों के माध्यम से प्रचारित करने का प्रयास किया एवं आज साम्यवादी/नास्तिक/भोगवादी तथाकथित बुद्धिजीवी लाबी द्वारा किया जा रहा हैं बल्कि वेदों में वर्णित संयम विज्ञान पर आधारित शुद्ध आस्तिक विचारधारा हैं.

वेदों के सदाचार के सन्देश से अनभिज्ञ होने के कारण आज ऐसा दुष्प्रचार मीडिया के माध्यम से जोरो पर हैं की उन्मुक्त सम्बन्ध, विवाह पूर्व सम्भोग, परस्त्री अथवा परपुरुष सम्बन्ध, विवाहेतर सम्बन्ध, पशुव्रत व्यवहार, लीव-इन- रिलेशन, महिला अथवा पुरुष समलेंगिकता,अंग प्रदर्शन आदि सभ्य समाज का आइना हैं जबकि सत्य यह हैं की सभ्यता भोगवाद में नहीं अपितु श्रेष्ठ व्यवहार,उत्तम आचरण, संयम में हैं जिसके लिए व्यक्ति का शुद्ध आचार वाला होने अत्यंत आवश्यक हैं.

भौतिकवाद अर्थ और काम पर ज्यादा बल देता हैं जबकि अध्यातम धर्म और मुक्ति पर ज्यादा बल देता हैं.वैदिक जीवन में दोनों का समन्वय हैं. एक तरफ वेदों में पवित्र धनार्जन करने का उपदेश हैं दूसरी तरफ उसे श्रेष्ठ कार्यों में दान देने का उपदेश हैं.एक तरफ वेद में भोग केवल और केवल संतान उत्पत्ति के लिए हैं दूसरी तरफ संयम से जीवन को पवित्र बनाये रखने की कामना हैं.एक तरफ वेद में बुद्धि की शांति के लिए धर्म की और दूसरी तरफ आत्मा की शांति के लिए मोक्ष (मुक्ति) की कामना हैं. धर्म का मूल सदाचार हैं. अत: कहाँ गया हैं आचार परमो धर्म: अर्थात सदाचार परम धर्म हैं. आचारहीन न पुनन्ति वेदा:. अर्थात दुराचारी व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते. अत: वेदों में सदाचार, पाप से बचने, चरित्र निर्माण, ब्रहमचर्य आदि पर बहुत बल दिया गया हैं. जैसे

यजुर्वेद ४/२८ – हे ज्ञान स्वरुप प्रभु मुझे दुश्चरित्र या पाप के आचरण से सर्वथा दूर करो तथा मुझे पूर्ण सदाचार में स्थिर करो.

ऋग्वेद ८/४८/५-६ – वे मुझे चरित्र से भ्रष्ट न होने दे.

यजुर्वेद ३/४५- ग्राम, वन, सभा और वैयक्तिक इन्द्रिय व्यवहार में हमने जो पाप किया हैं उसको हम अपने से अब सर्वथा दूर कर देते हैं.

यजुर्वेद २०/१५-१६- दिन, रात्रि, जागृत और स्वपन में हमारे अपराध और दुष्ट व्यसन से हमारे अध्यापक, आप्त विद्वान, धार्मिक उपदेशक और परमात्मा हमें बचाए.

ऋग्वेद १०/५/६- ऋषियों ने सात मर्यादाएं बनाई हैं. उनमे से जो एक को भी प्राप्त होता हैं, वह पापी हैं. चोरी, व्यभिचार, श्रेष्ठ जनों की हत्या, भ्रूण हत्या, सुरापान, दुष्ट कर्म को बार बार करना और पाप करने के बाद छिपाने के लिए झूठ बोलना.

अथर्ववेद ६/४५/१- हे मेरे मन के पाप! मुझसे बुरी बातें क्यों करते हो? दूर हटों. मैं तुझे नहीं चाहता.

अथर्ववेद ११/५/१०- ब्रहमचर्य और तप से राजा राष्ट्र की विशेष रक्षा कर सकता हैं.

अथर्ववेद११/५/१९- देवताओं (श्रेष्ठ पुरुषों) ने ब्रहमचर्य और तप से मृत्यु (दुःख) का नष्ट कर दिया हैं.

ऋग्वेद ७/२१/५- दुराचारी व्यक्ति कभी भी प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकता.

इस प्रकार अनेक वेद मन्त्रों में संयम और सदाचार का उपदेश हैं.

खजुराओ आदि की व्यभिचार को प्रदर्शित करने वाली मूर्तियाँ , वात्सायन आदि के अश्लील ग्रन्थ एक समय में भारत वर्ष में प्रचलित हुए वाम मार्ग का परिणाम हैं जिसके अनुसार मांसाहार, मदिरा एवं व्यभिचार से ईश्वर प्राप्ति हैं. कालांतर में वेदों का फिर से प्रचार होने से यह मत समाप्त हो गया पर अभी भी भोगवाद के रूप में हमारे सामने आता रहता हैं.

समस्त मानव जाति के लिए वेद मार्ग दर्शक के रूप में पवित्र जीवन जीने के प्रेरणा दे रहे हैं तो भारतीय संस्कृति के विकृत भोगवादी व्यभिचारी रूप को भारतीय संस्कृति कह कर परोसना अत्यंत खेदजनक बात हैं.

पाठक मेरा इस लेख को लिखने का उद्देश्य समझ ही गए होंगे की हमारा लिए महान और लाभकारी संयम और सदाचार हैं नाकि भोगवाद और व्यभिचार.

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Posted on January 9, 2012, in Philosophy. Bookmark the permalink. 3 Comments.

  1. नन्दकिशोर आर्य

    ये एक मानसिक रोग है जिसका इलाज आर्य समाज के पास है

  2. R K Arya Chauhan

    Jee han ye bat bilkul thek hai aaj agar hamare samaj ke patan hua hai to us ka karan aise he vichar hai …. es liye ab rishton men bhi wo … vastivkta dikhai nahin deti………es liye hamen mil kar punar ved giyan ko pailana hoga………………….

  3. Dr. G.P. Shadangi

    hamara desa vasi bhai bahno ko sahi kya galat kya yah jankari dene vala hamara educational sahi nahi. isiliye is tarah ke masnasika vikruti vichara badha rahe hai. me is kriya kalap ka samarthan nahi karta hu.

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